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के.एन. सिंह : हिंदी सिनेमा का पहला ‘जेंटलमैन विलेन’

नरेंद्र बुधौलिया narendravindhyasatta@gmail.com सितम्बर 01, 2025 12:31 PM   City:रीवा

के.एन. सिंह : हिंदी सिनेमा का पहला ‘जेंटलमैन विलेन’

हिंदी सिनेमा के परदे पर जब-जब खलनायकों की चर्चा होती है, तो उनमें एक नाम सबसे अलग दिखाई देता है – कृष्ण निरंजन सिंह, यानी के.एन. सिंह।

1 सितंबर 1908 को देहरादून में जन्मे इस अभिनेता ने भारतीय फिल्मों के खलनायकी के चेहरे को बदलकर रख दिया। वे न सिर्फ सलीकेदार और ठंडे दिमाग़ वाले खलनायक बने, बल्कि ऐसे खलनायक जिन्होंने थ्री-पीस सूट और हैट पहनकर भी दर्शकों को भीतर तक डरा दिया।

पिता के पेशे से नाराज़ होकर फिल्मों तक सफर,

के.एन. सिंह का परिवार बेहद प्रतिष्ठित था। उनके पिता देहरादून के मशहूर क्रिमिनल लॉयर थे। स्वाभाविक था कि वे चाहते थे उनका बेटा भी वकालत करे और इस पेशे को आगे बढ़ाए। इंग्लैंड भेजने की पूरी तैयारी हो चुकी थी, लेकिन एक घटना ने सिंह साहब के जीवन की दिशा ही बदल दी।

दरअसल, एक मुकदमे में उनके पिता ने एक कुख्यात अपराधी को अदालत में निर्दोष साबित कर दिया। यह घटना युवा कृष्ण निरंजन सिंह के दिल को बहुत बुरी लगी। उन्होंने पिता से साफ कह दिया कि वे वकालत नहीं करेंगे। उनके भीतर सच और न्याय के प्रति जो संवेदनशीलता थी, उसने उन्हें कानून की पढ़ाई से दूर कर दिया। यहीं से उनकी जीवन यात्रा का नया अध्याय शुरू हुआ।

पृथ्वीराज कपूर से मुलाकात और पहला कदम,

इसी दौरान उन्हें एक ज़रूरी काम से कलकत्ता जाना पड़ा, जहाँ कई दिन तक उनका रहना हुआ। यहीं उनकी मुलाकात पृथ्वीराज कपूर से हुई, जो उस समय थिएटर और फिल्मों की दुनिया में स्थापित हो चुके थे। यह मुलाकात ही उनके जीवन का टर्निंग पॉइंट बन गई। पृथ्वीराज कपूर ने उन्हें फिल्मों की ओर प्रेरित किया और न्यू थिएटर्स के बैनर तले बनी फिल्म सुनहरा संसार (बांग्ला में सोनार संसार) में उन्हें एक छोटा-सा रोल दिलवाया।

देबकी बोस निर्देशित इस फिल्म में के.एन. सिंह ने डॉक्टर का किरदार निभाया। भले ही यह छोटा रोल था, लेकिन यहीं से उन्होंने फिल्मों में कदम रखा। इसके बाद उन्होंने कलकत्ता में कुछ और फिल्मों में काम किया और फिर ए.आर. कारदार के साथ मुंबई आ गए।

‘बागबान’ से खलनायकी की शुरुआत,

मुंबई में उनकी पहली फिल्म बागबान (1937) थी, जिसमें उन्होंने पहली बार खलनायक की भूमिका निभाई। यही फिल्म उनके करियर का निर्णायक मोड़ बनी। इससे पहले हिंदी फिल्मों के खलनायक ज्यादातर क्रूर चेहरे वाले, भारी-भरकम और डरावने दिखते थे। मगर के.एन. सिंह ने इस छवि को पूरी तरह बदल दिया।

वे खलनायक होते हुए भी हमेशा सुटेड-बूटेड, सलीके से बोलने वाले और बेहद परिष्कृत अंदाज़ में परदे पर आते थे। उनकी खामोश निगाहें और ठंडी मुस्कान ही दर्शकों के रोंगटे खड़े कर देती थीं। यही वजह थी कि वे सिनेमा के पहले “जेंटलमैन विलेन” कहलाए।

पाँच दशकों का शानदार करियर,

के.एन. सिंह ने लगभग पाँच दशकों तक फिल्मों में काम किया और करीब 200 फिल्मों में अपनी छाप छोड़ी। उन्होंने सिर्फ खलनायकी ही नहीं, बल्कि चरित्र भूमिकाओं में भी बेहतरीन अभिनय किया।

उनकी प्रमुख फ़िल्में और यादगार किरदार,

बागबान (1937) – पहली बार खलनायक के रूप में पहचान।

काला पानी (1958) – देव आनंद के साथ दमदार निगेटिव रोल।

कानून (1960) – बिना गीत-संगीत की अनोखी फ़िल्म में रहस्यमय किरदार।

हमराही (1963) – ठंडे दिमाग़ वाला खलनायक।

आराधना (1969) – राजेश खन्ना की सुपरहिट फिल्म में पुलिस ऑफिसर।

इत्तेफ़ाक (1969) – सस्पेंस थ्रिलर में खौफनाक उपस्थिति।

अजनबी (1974) – राजेश खन्ना के साथ प्रभावी भूमिका।

बेताब (1983) – सनी देओल की डेब्यू फिल्म में नकारात्मक किरदार।

हम (1991) – अमिताभ बच्चन की ब्लॉकबस्टर में माफिया डॉन।

दुर्लभ तथ्य और दिलचस्प किस्से,

एथलीट भी थे – फिल्मों से पहले वे एथलेटिक्स में नाम कमा चुके थे। 400 मीटर हर्डल्स और शॉटपुट के अच्छे खिलाड़ी रहे और 1932 ओलंपिक तक जाने की तैयारी कर रहे थे, लेकिन अंतिम समय में चयन नहीं हो पाया।

अनुशासित जीवन – वे खान-पान और आदतों में बेहद सख्त थे। सिगरेट, शराब और तंबाकू जैसी लतों से दूर रहते थे।

फैशन आइकॉन खलनायक – सिनेमा में पहली बार उन्होंने दिखाया कि खलनायक भी थ्री-पीस सूट और हैट में दिख सकता है।

आवाज़ का जादू – उनकी गहरी और खिंची हुई आवाज़ ही उनकी सबसे बड़ी पहचान बन गई।

पेशेवराना रवैया – वे हमेशा समय से सेट पर पहुँचते और संवाद पूरी तैयारी के साथ बोलते थे। निर्देशक और सह-कलाकार उनका बहुत सम्मान करते थे।

के.एन. सिंह सिर्फ एक अभिनेता नहीं थे, बल्कि हिंदी सिनेमा में खलनायकी की परिभाषा बदल देने वाले कलाकार थे। उन्होंने यह साबित किया कि खलनायक सिर्फ डरावना चेहरा नहीं, बल्कि सलीकेदार व्यक्तित्व और ठंडी निगाहों वाला जेंटलमैन भी हो सकता है।

उनकी यात्रा यह संदेश देती है कि कभी-कभी जीवन की राहें एक छोटी-सी घटना से बदल जाती हैं। अगर वे पिता के पेशे से नाराज़ न हुए होते, तो शायद भारतीय सिनेमा को यह अनोखा और यादगार खलनायक कभी न मिलता।