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परम सुंदरी: चमकदार सिनेमैटोग्राफी में उलझी लचर कहानी;

नरेंद्र बुधौलिया narendravindhyasatta@gmail.com अगस्त 30, 2025 12:16 PM   City:रीवा

हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में अक्सर यह सवाल उठता रहा है कि स्टारकिड्स अपनी मेहनत से पहचान बनाएँगे या सिर्फ़ अपने बड़े नाम की वजह से टिके रहेंगे। जाह्नवी कपूर इस प्रश्न का एक दिलचस्प उत्तर देती नज़र आ रही हैं। उनकी एक्टिंग फ़िल्म दर फ़िल्म बेहतर होती दिख रही है। शुरुआती झिझक और बार-बार तुलना के बोझ से अब वह बाहर निकलकर एक स्वतंत्र कलाकार के रूप में पहचान बनाने की कोशिश करती हैं। जब किसी "नेपोकिड" में मेहनत दिखाई देती है, तो दर्शक भी उसे सराहते हैं।

फ़िल्म का नाम और लोकेशन: विज्ञापन जैसा एहसास,

फ़िल्म का शीर्षक "परम सुंदरी" रखा गया है, लेकिन अगर इसे "केरला एक्सप्रेस" नाम दे दिया जाता, तो शायद ज़्यादा सटीक लगता। पूरी फ़िल्म में केरला टूरिज़्म का ऐसा-वैसा नहीं, बल्कि बड़ा-सा विज्ञापन झलकता है। हाउसबोट से लेकर बीच और हरे-भरे जंगल तक, हर फ्रेम "केरला डायरीज़" जैसा प्रतीत होता है।

निर्देशन और लेखन: औसत स्तर पर,

तुषार जलोटा का निर्देशन और लेखन उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता। कहानी में नयापन तो दूर, घटनाओं की प्रस्तुति भी बेहद अनुमानित और थकाऊ है। सबसे बड़ी खामी है स्लो मोशन का अतिशय प्रयोग। पूरी फ़िल्म 2 घंटे 10 मिनट की है, जबकि यह आराम से 1 घंटा 40 मिनट में निपट सकती थी। परंतु स्लो मोशन इतना ज़्यादा है कि नीलेश मिश्रा जैसे कथाकार भी देखकर शायद निर्देशक को पाँच तारे दे दें।

परम और सुंदरी की कहानी,

फ़िल्म का नायक परम एक "बिगड़े हुए बड़े बाप की औलाद" है, जिसके सारे स्टार्टअप्स असफल हो चुके हैं। उसकी आख़िरी उम्मीद है "फाइंड योर सोलमेट" नामक डेटिंग/मैट्रिमोनियल एप, जो जीवनसाथी खोजने में सौ फ़ीसदी कारगर बताया जाता है। इसी एप के ज़रिए परम की मुलाक़ात होती है "थेकेपट्टु सुंदरी दामोदरम पिल्लई" से, और दोनों की कहानी दिल्ली से केरला की यात्रा पर निकल पड़ती है।

सिद्धार्थ मल्होत्रा की एक्टिंग और लुक्स,

फ़िल्म का सबसे बड़ा कमजोर पक्ष है सिद्धार्थ मल्होत्रा का अभिनय। शाहरुख खान की तरह रोमांटिक और चार्मिंग बनने की कोशिश में वह अपनी मौलिकता ही खो बैठे। ओवरएक्टिंग के इतने दृश्य हैं कि याद दिला देते हैं उदय चोपड़ा की फ़िल्मों को। ऊपर से, पिंक लिपस्टिक और स्टाइलिश स्लो मोशन में उनके एंगल इतने बार दिखाए गए हैं कि तुलना करनी पड़ेगी प्रशांत नील के "रॉकी भाई" (यश) के आइकॉनिक फ्रेम्स से। फर्क सिर्फ इतना है कि यश का हर शॉट दर्शकों को रोमांचित करता था, जबकि सिद्धार्थ का स्लो मोशन "क्रिंज" बनकर सामने आता है।

क्रिंज-पन और अटपटे दृश्य,

फ़िल्म में कई दृश्य इतने अजीब हैं कि दर्शक समझ नहीं पाते, हँसें या सिर पकड़ लें। उदाहरण के लिए, केरला के छोटे से टाउन में सुबह-सुबह सिद्धार्थ मल्होत्रा रानी कलर की बनियान, नीली बॉक्सर और गुलाबी 3D चश्मा पहनकर दौड़ लगा रहे होते हैं। तभी एक लड़की उनसे टकराती है और उन्हें इस तरह से छेड़ने लगती है, जैसे कोई पियानो बजा रही हो। बाद में वही लड़की वार्डरोब में उन्हें ज़बरन चूमने की कोशिश करती है। इस दृश्य को ह्यूमर की तरह दिखाया गया है, लेकिन असल में यह "जेंडर-रिवर्स्ड हरासमेंट" है। विडंबना यह है कि दर्शक इस पर हँसते हैं, और बैकग्राउंड में "तगधुम तगधुम त न त न" बजता रहता है।

सिनेमैटोग्राफी की चमक,

फ़िल्म का सबसे बड़ा प्लस पॉइंट है इसकी सिनेमैटोग्राफी। डीओपी संथाना कृष्णन रविचंद्रन ने कैमरे से कमाल कर दिया है। हर फ्रेम जीवंत और चमकदार है। इतने रंगीन और जीवंत शॉट्स हैं कि ट्रैफिक लाइट्स तक शरमा जाएँ। केरला के बैकवॉटर, मंदिर, बीच, त्योहार और हरियाली – सबकुछ इतना खूबसूरत शूट किया गया है कि दर्शक मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। यही वजह है कि फ़िल्म भले ही कहानी के स्तर पर कमजोर हो, लेकिन देखने लायक लगती है।

सहायक कलाकार और अन्य पहलू,

जाह्नवी कपूर के अलावा संजय कपूर और नवजोत गुलाटी ने भी अच्छा अभिनय किया है। जाह्नवी अपनी मासूमियत और आत्मविश्वास से कई दृश्यों को संभाल लेती हैं। वहीं, कहानी का स्ट्रक्चर चेन्नई एक्सप्रेस और हम्पटी शर्मा की दुल्हनिया जैसी फ़िल्मों से मिलता-जुलता है। क्लाइमैक्स और मिडपॉइंट दोनों ही अनुमानित हैं। पंचलाइंस और डायलॉग्स ठीक-ठाक हैं, कुछ जगहों पर हँसी भी आती है, लेकिन उनकी गूंज लंबे समय तक याद नहीं रहती।

अंतिम विश्लेषण,

"परम सुंदरी" एक ऐसी फ़िल्म है, जिसमें सिनेमैटोग्राफर ने अपनी पूरी जान लगा दी, लेकिन लेखक और निर्देशक कहानी व पात्रों के साथ न्याय नहीं कर पाए। जाह्नवी कपूर की मेहनत और ग्रोथ महसूस होती है, लेकिन सिद्धार्थ मल्होत्रा की ओवरएक्टिंग और बनावटीपन फ़िल्म को भारी कर देते हैं।

फ़िल्म खूबसूरत है, रंगीन है, वाइब्रेंट है – लेकिन कहानी और भावनाओं के मामले में खोखली है। यदि सिद्धार्थ मल्होत्रा की एक्टिंग और लेखन पर थोड़ी और मेहनत की जाती, तो यह फ़िल्म केवल केरला टूरिज़्म का विज्ञापन बनकर न रह जाती, बल्कि एक यादगार प्रेमकहानी भी बन सकती थी।