हिंदी सिनेमा में कुछ नाम ऐसे होते हैं जो सिर्फ आवाज़ नहीं, आत्मा बन जाते हैं।

"जब बीन ने बाँधा जादू — हेमंत दा और नागिन की अमर धुन"
(जन्मशती वर्ष स्मृति आलेख | 16 जून 1920 – 26 सितंबर 1989)
"मैं तो कलकत्ता लौटना चाहता था, लेकिन फिर एक धुन ने मुझे रोक लिया — और पूरी दुनिया को थमा दिया!"
—हेमंत कुमार
हिंदी सिनेमा में कुछ नाम ऐसे होते हैं जो सिर्फ आवाज़ नहीं, आत्मा बन जाते हैं। हेमंत कुमार उन विरल नामों में से एक थे। गायक, संगीतकार, निर्माता—हर रूप में उन्होंने न केवल अपने समकालीनों को प्रभावित किया, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक ऊँचा मानदंड स्थापित किया।
पर यह सब यूँ ही नहीं हुआ। हेमंत दा का सफ़र संघर्षों से भरा था, और उनमें सबसे बड़ा मोड़ आया जब उन्होंने 1954 में फिल्म "नागिन" का संगीत रचा।
कलकत्ता से बंबई: एक अनमना सफ़र
हेमंत कुमार मुखोपाध्याय का जन्म 16 जून 1920 को वाराणसी में हुआ, लेकिन उनकी परवरिश कलकत्ता में हुई। क्लासिकल संगीत से गहरी आत्मीयता और रवींद्र संगीत के प्रति विशेष लगाव ने उन्हें संगीत की बारीकियों में गहराई से उतरने को प्रेरित किया। बांग्ला फिल्मों में वे बतौर गायक पहले ही अपनी पहचान बना चुके थे, लेकिन हिंदी सिनेमा के लिए वह दौर चुनौतीपूर्ण था।
बंबई आए तो थे उम्मीद लेकर, लेकिन जल्दी ही उनकी आत्मा वहाँ घुटने लगी।
"मैं यहाँ रहकर अपनी जड़ों से कटता महसूस कर रहा था..." — उन्होंने बाद में स्वीकारा।
हालांकि, 1952 में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास पर आधारित फिल्म "आनंदमठ" में उनका संगीत जब आया, तो फिल्म का गीत "वंदे मातरम्" आज़ादी की भावना के साथ एक नई ध्वनि बनकर गूंज उठा। इसने उन्हें चर्चा में तो ला दिया, पर खुद हेमंत कुमार इससे संतुष्ट नहीं थे।
शशधर मुखर्जी की ज़िद और एक वादा
फ़िल्मिस्तान स्टूडियो के संस्थापक शशधर मुखर्जी को हेमंत दा की प्रतिभा पर अटूट विश्वास था। जब हेमंत कुमार कलकत्ता लौटने को तैयार थे, मुखर्जी साहब ने साफ़ कह दिया—
"हेमंत, एक हिट फिल्म तो दो। फिर जाना हो तो ज़रूर जाना।"
हेमंत दा रुक गए। उन्होंने दो और फिल्मों "शारदा" और "राही" का संगीत दिया। लेकिन दोनों ही फिल्में व्यावसायिक रूप से प्रभावशाली नहीं रहीं। हेमंत कुमार थोड़ा खिन्न हो गए, लेकिन शशधर साहब का वादा अभी अधूरा था।
नागिन: संगीत का चमत्कार
फिर आई 1954 की ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म – "नागिन"। निर्देशक नंदी लाल जसवंतलाल के इस लोककथा आधारित रोमांटिक ड्रामा में प्रीतम (प्रेमनाथ) और नागिन (वैजयंतीमाला) की प्रेम कहानी दिखाई गई थी।
लेकिन इस फिल्म का असली नायक था—संगीत।
हेमंत कुमार जानते थे कि इस कहानी में एक अलौकिकता, एक जनजातीय रहस्य और भारतीय सांप-पूजन परंपरा की आत्मा को छूने वाला संगीत चाहिए। और तभी उनके दिमाग में आई — "बीन" की धुन की कल्पना। एक ऐसी धुन जो सिर्फ सुनाई नहीं दे, बल्कि दर्शकों की नसों में उतर जाए।
जब ‘बीन’ नहीं मिली तो हुआ नवाचार
हेमंत दा चाहते थे कि यह धुन पारंपरिक सांपों की बीन (पुंगी) पर ही बजाई जाए। इसके लिए उन्होंने कई सपेरों की तलाश की। मगर सपेरों को स्टूडियो लाना, उनकी बीन की धुन को ऑर्केस्ट्रा में ढालना—ये एक logistical nightmare बन गया।
इसलिए उन्होंने एक दूसरी राह अपनाई—कृत्रिम वाद्य संयोजन।
उन्होंने याद किया कि कुछ साल पहले उन्होंने चित्रगुप्त जी द्वारा संगीतबद्ध फिल्म "नागपंचमी" में एक अनूठी ध्वनि सुनी थी। उस ध्वनि को निकालने वाला वाद्य था — "क्लैव्योलाइन", एक इलेक्ट्रॉनिक कीबोर्ड वाद्य जो वॉयलिन और बीन जैसे स्वर निकाल सकता था।
इस वाद्य को बजाने वाला था एक युवा उभरता हुआ संगीतकार—कल्याणजी वीरजी शाह (जो आगे चलकर कल्याणजी-आनंदजी की मशहूर जोड़ी में शामिल हुए)।
हेमंत दा ने उन्हें बुलाया और कहा—
"मुझे बीन की धुन चाहिए, जो नागिन के प्रेम की पुकार बन जाए।"
बीन की धुन: जो अमर हो गई
फिर हुआ वो जादू।
कल्याणजी भाई ने क्लैव्योलाइन बजाया, हेमंत दा ने हारमोनियम के साथ मिलाकर उसे निर्देशित किया।
बीन की यह धुन इतनी प्रभावशाली बनी कि आज 70 साल बाद भी जब कहीं सांप-नागिन का ज़िक्र आता है, तो यही धुन ज़ेहन में गूंजती है।
फिल्म में लता मंगेशकर, आशा भोंसले, हेमंत कुमार, और मोहम्मद रफ़ी जैसे गायकों की आवाज़ें थीं।
गीत — "मन डोले मेरा तन डोले", "तेरे द्वार खड़ा इक जोगी", "नजर लागी राजा तोरे बंगले पर" — आज भी संगीत प्रेमियों की धरोहर हैं।
हेमंत दा: एक विरासत
"नागिन" की सफलता के बाद हेमंत कुमार ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
उन्होंने "बीस साल बाद", "खामोशी", "अनुपमा", "बीवी और मकान", "बीसवीं सदी", "जागृति" जैसी फिल्मों में संगीत दिया जो आज भी कालजयी हैं।
वे 1950-70 के दशक में वह स्वर बने जिसने उदासी को भी मधुरता में ढाल दिया।
उन्हें याद करते हुए...
आज 16 जून को हेमंत दा का 105वाँ जन्मदिवस है।
उनकी बनाई नागिन की धुन न सिर्फ फिल्म संगीत का प्रतीक बन गई, बल्कि यह एक सांस्कृतिक स्मृति भी बन चुकी है। उनके संगीत ने हमें ये सिखाया कि जब साधना में समर्पण हो, तो सीमाएं टूट जाती हैं—फिर वाद्य भी बोलने लगते हैं, और स्वर अमर हो जाते हैं।
हेमंत दा को शत शत नमन।
आपका स्वर हमारे दिलों में सदा गूंजता रहेगा।
