शैलेंद्र का जादू : ‘खोया खोया चाँद’ के जन्म की अनसुनी दास्तान;

फ़िल्म जगत की सुनहरी कहानियों में से एक है काला बाज़ार फ़िल्म के मशहूर गीत खोया खोया चाँद, खुला आसमान… की दास्तान। यह गीत जितना मधुर है, उसकी रचना की कहानी उतनी ही दिलचस्प। 1960 में आई देव आनंद अभिनीत इस फ़िल्म का निर्देशन विजय आनंद (गोल्डी) ने किया था और संगीत दिया था दादा एस.डी. बर्मन ने। गीतकार थे शैलेंद्र, जिनका नाम सुनते ही हिंदी फिल्म संगीत प्रेमियों के दिलों में एक अलग ही जज़्बात उमड़ पड़ते हैं।
दरअसल, उस समय शैलेंद्र जी बेहद व्यस्त गीतकार हुआ करते थे। उनका कोई स्थायी ठिकाना नहीं था, कभी राज कपूर के साथ, कभी शंकर-जयकिशन के साथ, तो कभी किसी और फ़िल्म के सेट पर। ऐसे में दादा बर्मन ने जब काला बाज़ार के लिए इस खास गीत की धुन तैयार की तो उन्हें मुखड़े की सख्त ज़रूरत थी। लेकिन शैलेंद्र से संपर्क कर पाना बेहद मुश्किल साबित हो रहा था।
आख़िरकार दादा बर्मन ने अपने बेटे पंचम (आर.डी. बर्मन) को जिम्मेदारी दी कि आज चाहे जैसे भी हो, शैलेंद्र से मुखड़ा लिखवाकर ही लाओ। पिता का आदेश पाकर पंचम शैलेंद्र को ढूंढने निकल पड़े। पूरे दिन की तलाश के बाद वे पहुंचे संगीतकार जयकिशन के घर, जहां शैलेंद्र किसी और गाने में व्यस्त थे। पंचम को देखकर जयकिशन ने कहा, अभी तो वो मेरा गाना लिख रहे हैं। लेकिन जब पंचम ने बताया कि यह दादा बर्मन का आदेश है, तो जयकिशन ने उन्हें इंतज़ार करने को कहा।
करीब रात 11 बजे शैलेंद्र फुर्सत में हुए। पंचम से मिले और पूछा, (धुन याद है?) पंचम ने हामी भरी। तब शैलेंद्र बोले – (चलो जुहू चलते हैं।) इतनी रात को सुनसान समुद्र किनारे जाने का विचार पंचम को अजीब लगा, मगर शैलेंद्र अपनी जिद पर अड़े रहे।
जुहू बीच पर पहुंचकर दोनों समंदर किनारे बैठ गए। शैलेंद्र ने इधर-उधर की बातें शुरू कर दीं लेकिन बेचैन पंचम बार-बार गाने का मुखड़ा मांगते रहे। तभी शैलेंद्र ने अचानक उनसे माचिस मांगी। पंचम धूम्रपान करते थे, इसलिए माचिस जेब में थी। शैलेंद्र ने कहा – (इस माचिस की डिब्बी पर धुन बजाओ।) पंचम ने वैसा ही किया। फिर शैलेंद्र ने माचिस अपने हाथ में ली, धुन को महसूस किया और अचानक आसमान की ओर देखते हुए बोले – (देखो, आज चाँद कितना खूबसूरत है। खोया-खोया चाँद… खुला आसमान… ऐसे में भला नींद कैसे आएगी?)
यही वह क्षण था जब इस अमर गीत का मुखड़ा जन्मा। पंचम स्तब्ध रह गए। कुछ ही मिनटों में शैलेंद्र ने पूरा गीत कागज़ पर उतार दिया। और दो दिन बाद, रफ़ी साहब की आवाज़ और दादा बर्मन की धुन के साथ यह गीत रिकॉर्ड कर लिया गया।
यह किस्सा स्वयं पंचम दा ने एक इंटरव्यू में साझा किया था। उन्होंने बताया था कि शैलेंद्र के लिए (गीत) केवल शब्दों का जोड़ नहीं था, बल्कि वह माहौल, वह एहसास था, जो पल भर में कविता में बदल जाता था।
आज, जब हम इस गीत को सुनते हैं, तो सिर्फ़ रफ़ी साहब की आवाज़ या बर्मन दा की धुन ही नहीं, बल्कि शैलेंद्र की उस संवेदनशील नज़र को भी महसूस करते हैं जिसने समंदर किनारे चमकते चाँद को गीत में ढाल दिया।
और इस कहानी को याद करने का इससे अच्छा अवसर और क्या हो सकता है, क्योंकि आज 30 अगस्त को शैलेंद्र जी का जन्मदिवस है। 1923 में रावलपिंडी में जन्मे इस गीतकार ने हिंदी सिनेमा को (आवारा हूँ), (सजन रे झूठ मत बोलो), तू प्यार का सागर है, जैसे कालजयी गीत दिए। उनका लिखा हर शब्द आज भी श्रोताओं के दिल को छू जाता है।
विंध्य सत्ता समाचार शैलेंद्र जी को उनके जन्मदिवस पर शत-शत नमन करता है।
